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जाति के कुछ समुद्री पौधो मे मिलता है जिनके बीजकण जंतु के रूप मे अलग हो कर अपनी रोइयो से पानी मे तैरते फिरते हैं और कुछ दिन पीछे किसी चट्टान आदि पर जम जाते है और पौधे के रूप में हो कर बढ़ते हैं। यह बात तो बहुत से लोग जानते ही हैं कि पौधो में भी पाचनक्रिया होती है और वे भी साँस लेते हैं। पर पहले लोग जंतुओ मे यह विशेषता समझते थे कि उनमे पाचन के लिये अलग कोठा (पेट) होता है, वे अम्लजन वा प्राणदवायु साँस द्वारा खीचते हैं और अंगारक (कारबन) वायु निकालते हैं तथा उनमे संवेदन-सूत्रात्मक विज्ञानमय कोश होता है। पर अब ऐसे क्षुद्र कोटि के जतुओ का पता है जिनमें पेट, मुंँह आदि कुछ नहीं होता और कई ऐसे पौधे देखे गए हैं जिनमे ये अंग होते है। पहले लोगो को केवल उच्च कोटि के जंतुओ का ही ज्ञान था जिनका खाद्य ठोस होता है और जिनके लिये पक्काशय और मुहँ की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार पेड़ पौधो मे भी लोग उन्ही को जानते थे जिनका आहार वायव्य या द्रव होता था। अब मांसाशी पौधो की पत्तियों की परीक्षा करने से ज्ञात हुआ है कि उनमे काँटो की तरह सूक्ष्म ग्रंथियाँ होती है जिनसे पित्तरस रहता है (जैसे जंतुओ के यकृत और आंतों की ग्रथियो मे)। यही तक नही अंकुरित बीजो मे जंतुओ के पाचनरस का सा विधान देखा जाता है और बीजदल में जो खाद्य द्रव्य रहता है वह उसी प्रकार पच कर बीज को पुष्ट करता है जिस प्रकार पेट में भोजन पचता है। हरे पौधे प्रकाश मे तो अंगारकवायु का विश्लेषण करके अम्लजन वायु छोड़ते हैं, पर अंधेरे मे