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शरीर का सारा भाग बाह्य भूतों के भिन्न भिन्न प्रकार के संपर्कों को समान रूप से ग्रहण करता था, प्रत्येक भाग प्रत्येक व्यापार कर सकता था। फिर असंख्य पीढ़ियों के पीछे होते होते यह हुआ कि जिस भाग पर स्थिति के अनुसार संपर्क अधिक हुआ उसमें अभ्यास के कारण संपर्क अधिक ग्रहण करने की विशेषता उत्पन्न हुई। इस गुणविकाश के साथ ही उन भाग की आकृति में भी परिवर्तन हुआ। जैसे, मोनरा का शरीर जल मे पड़े हुए मधुबिन्दु के समान सर्वत्र एकरूप था और उसके चारों ओर बाह्यभूतों के अण्वात्मक प्रवाहो का आघात पड़ता था। यह आघात पहले ऊपरी सतह पर पड़ कर तब भीतरी कललरस की कणिकाओं पर प्रभाव डालता था। अतः स्थिति के अनुसार जिनमें उक्त आघात का ग्रहण अधिक हुआ उनके ऊपरी तल में और कललरस के भीतरी कणो की स्थिति में भौतिक और रासायनिक नियमों के अनुसार विशेषताएं उत्पन्न होने लगीं। ये विशेषताएं बराबर वृद्धि को प्राप्त होती गईं यहाँ तक कि अमीबा का प्रादुर्भाव हुआ जिसके ऊपर झिल्ली का आवरण होता है और भीतर कललरस के बीच एक गुठली तथा फैलने और सुकड़नेवाला एक खाली स्थान होता है।

बहुत से अणुजीव मिल कर एक समूहपिंड या छत्ता सा बना लेते हैं। समूहचक्र में बद्ध रहने पर भी प्रत्येक जीव अलग अलग कीटाणु होता है, सब मिल कर एक जीव या एक शरीर नहीं हो जाते। ये समूहपिंड या चक्र इस प्रकार बनते हैं। चक्रबद्ध अणुजीवों में जो वृद्धि-विधान होता है उसमें