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मूत्र में कई प्रकार के क्षोभ होते हैं उसी प्रकार मस्तिष्क मे जाकर उनके द्वारा उत्पन्न संस्कारों का बोध भी होता है। अत चेतना भा भौतिक अंतःकरण का ही व्यापार है जो उस करण के नष्ट होने पर नष्ट हो जाता है। विकाशसिद्धांत को लेकर हैकल ने दिखाया है कि अत्यन्त क्षुद्र कोटि के जंतुओ मे जिनमे संवेदनसूत्रो और मस्तिष्क आदि का पूरा विधान नही होता, अंत करणव्यापार चेतन अवस्था को नहीं पहुँचे रहने। उनमे अत्यन्त सादी चाल के संवेदनव्यापार होते है जिनके अनुसार उनके शरीर का आकुंचन, प्रसारण और संचालन आदि होता है पर उनके अंत:करण मे उस अवयव का विधान न होने के कारण जिसमे संवेदनव्यापार का प्रतिबिंब पड़ता है उनमे चेतना का अभाव होता है। पर विकाश-परंपरा में ज्यो ज्यो हम उन्नत कोटि के प्राणियो की और आते हैं त्यो त्यो उसका उत्तरोत्तर अधिक विधान पाते हैं। अत चैतन्य कोई नित्य और अपरिच्छिन्न सत्ता नहीं, वह परिणामशील है और उसमे घटती बढ़ती होती है।

यहां पर स्थूल मनोविज्ञानमय कोश को अथात् उस शरीरविधान का जिसके द्वारा संवेदन और मनोव्यापार होत है थोडा वर्णन आवश्यक है। शरीर का कोई भाग यदि खोला जाता है तो हम देखते हैं कि बहुत से मोटे, महीन तन्तुओ और सूत्रो का घना जाल फैला है। ये तन्तु और सूत्र कई प्रकार के दिखाई देते है--कोई लाल, कोई नीले, कोई सफेद। उनमें से लाल और नीले डोरे तो रक्तवाहिनी नलियाँ हैं जो पोली होती हैं। जो ठोस सफेद डोरे दिखाई देते