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है कि कोई द्रव्यखंड जब तक भौतिक गतिशक्ति द्वारा अवरुद्ध या विचलित न होगा तब तक या तो एक सीध में वराबर चला चलेगा या अचल रहेगा। जितने भौतिक व्यापार होते हैं सच दिग्वद्ध होते हैं, दिक् ही में उनकी अभिव्यक्ति होती है। इन व्यापारो को दिक से अनवच्छिन्न किसी सत्ता द्वारा प्रेरित या उत्पन्न नही मान सकते। अतः न तो शरीर को ही चलानेवाली कोई अभौतिक सत्ता है, न जगत् को। व्यापारी के प्रेरक या उत्पादक भौतिक व्यापार ही हो सकते है, यह विज्ञान का एक अखंड सिद्धांत है। इन सब प्रमाणो से सिद्ध है कि चेतनाशक्ति भी एक भौतिक शक्ति है। संवेदनसूत्रो और मस्तिष्क के व्यापारो के हिसाब से ही चेतना के व्यापारो का होना इस बात को प्रत्यक्ष प्रकट करता है।

आत्मसत्तावादी इन बातो का इस प्रकार उत्तर देते हैं। पहली बात तो यह कि शक्ति की अक्षरता का जो सिद्धांत है उसकी पहुँच वहीं तक समझनी चाहिए जहाँ तक मनुष्य परीक्षा कर सका है। दूसरी बात यह कि आत्मसत्ता संकल्प द्वारा भौतिक शरीर मे संचित गतिशक्ति की मात्रा मे वृद्धि या न्यूनता नही करती, केवल निमित्तरूप से यह भर निश्चय कर देती है कि वह कौन सा रूप धारण करे, किस ओर प्रवृत्त हो। शक्ति का वेग या मात्रा और बात है और किसी विशेष ओर को उसकी प्रवृत्ति और बात। गति और विधि मे जो भेद है उसे समझ लेना चाहिए। आत्मा केवल विधि का निर्णय करती है, गति की न वृद्धि करती है, न क्षय। अपने अंगों को जिस ओर जितनी बार चाहे हम बिना किसी भौतिक