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पृष्ठ:वेद और उनका साहित्य.djvu/४६

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[ वेद और उनका साहित्य - पकाने के पान लोहे और मिट्टी के तथा पीने के पात्र लकड़ी के होते थे। वे लोग शिकार करते थे । धनुषवाण मुख्य था; हिरणों को वागुरा से, पक्षियों और सिदों को जाल से पकड़ते थे। सूअर को कुत्तों से पकडाते थे । लुहार, चर्मकार, चटाई वाले, वस्त्र बुनने वाले मौजूद थे। रथ क्रीडा, चूत क्रीडा, नर्तन ये इनके विनोद के साधन थे। नर्तन में नियाँ भंगार करके भाग लेती थी (ऋ० १०। ७६ । ६)। बाजों में दुन्दुभी, वाण वाद्य, वीणा आदि मौजूद थे। भोजन के सम्बन्ध में ऋग्वेद में 'यव' 'धान्य' की बहुतायत है। यद्यपि आज कल की संस्कृत में 'य' जो के अर्थ में शाता है परन्तु उस समय नौ गेंहूँ, बैलों के अर्थ मे पाता था । बल्कि धन्न मान के लिए यव शब्द का प्रयोग होता था। उसी प्रकार 'धान्य' शब्द से चावल का अर्थ होता है पर वेद में यह शब्द भुने हुए जौ के अर्थ में आया है। मोहि (चावल) का ऋग्वेद में कही भी जिक्र नहीं है। कई प्रकार की रोटियों का जिक्र 'पक्ति' "पुरोदास ' 'अपूर्य' "करम्भ' शादि (मं.३ । सू. १२ ० १-२, मं० ४ सू० १४ न. ७ प्रादि में) पाया जाता है। रूप में मांसाहार का प्रकरण भी बंद में दीख पड़ता है और इस बात का घोर संदेह होता है कि क्या प्राचीनकाल के प्रार्य मांस खाते थे? उस काल में जैसा जीवन था उसे देखते यह अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता । ऋग्वेद के म. 5 सू० ६१ ० १२ । म०२ सू०७ ३. ५ । म. ५ स. २६ ० ७ और ८ । म० ६ सू. १७ ऋ० १"। म. ६ मू०१६ । ४७। म०६ सू० २८ ऋ० ४। म०१० सू. २७ ऋ०२। म० १० सू० २८० ३ प्रादि में इस प्रकार के प्रमाण मिलेंगे। म.१०। सू० ८६ ऋ. १४ में ऐसे स्थान का वर्णन है जहाँ पशुवध किया जाय और म. १०० ११० १४ में अन्य पशुधों