तीसरा अध्याय यजुः, साम और अथर्वण 'यजुप, लिनमें इन यजुर्वेद को सायण और महीधर ने पूर्ण यज्ञ-परक स्वीकार किया है। ऋग्वेद में हमें यज्ञकर्ताओं के भिन्न-भिन्न नाम जहाँ तहाँ मिलते हैं, जो यज्ञ में भिन्न-भिन्न कार्य किया करते थे। अध्वर्यु को यज्ञ में भूमि नापनी, यज्ञकुण्ड निर्माण करना और लकड़ी-पानी की व्यवस्था करनी पड़ती थी। गायन का कार्य उद्गाता करता था । इन लोगों को ऋग्वेद में और 'सामन्' के नाम से पुकारा गया है। अवश्य ही ऋग्वेद के ये सूक्त बातों का उल्लेख है उत्तर कालीन हैं और उस सभ्यता से बहुत पीछे की सभ्यता का उल्लेख करते हैं जो उन सूक्तों से प्रति ध्वानित होती है जिसमें इन्द्र,मित्र, वरुण और उपादेवी का वर्णन है। कृष्ण यजुर्वेद, तित्तिरि के नाम से तैत्तिरीय संहिता कहाता है। इस वेद की यात्रेय प्रति की अनुक्रमणी में यह लिखा है कि यह वेद वैशम्पायन से याक, को प्राप्त हुया फिर यास्क से तित्तिरि को, तित्तिर से उख को और उस से श्रात्रेय को। हम तो इस परम्परा वर्णन का यह अभिप्राय निकालते हैं कि अब जो हमें यजुर्वेद की प्रति प्राप्त है वह थादि प्रति नहीं। शुक्ल यजुर्वेद याज्ञवल्क्य वाजसनेय के नाम से वानसनेयी संहिता फहाता है। याज्ञवल्कय विदेह के राजा जनक की सभा के प्रसिद्ध पुरो- हित थे और उस नाम के अाधार पर यह कहा जा सकता है कि उक्त पुरोहित ने इस नई शाखा को प्रकाशित किया । इन दोनों यजुर्वेदों की प्रतियों में अन्तर यह है कि कृष्ण यजुर्वेद तो यज्ञ सम्बन्धी मन्त्रों के साथ ही साथ उनकी व्याख्याएँ भी दे दी
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