[वेद और उनका साहित्य हैं। साथ ही उनके भागे यज्ञ सम्बन्धी प्रावश्यक वर्णन भी हैं; परंतु दूसरी संहिता में घर्थात् शुक्ल यजुर्वेद में केवल मन्त्र ही दिये गये है और उनकी व्याख्या तथा यज्ञ वणन प्रतिविम्तार से अलग एक वाहाण में दिया गया है। इसी ब्राह्मण का नाम शतपथ है । इससे यह बात स्पष्ट होती है कि इस यज्ञ प्रेमी पुरोहित ने यजुर्वेद की पुरानी परिपाटी में एक संशोधन किया, कुछ परिवर्तन भी किया और उसकी पद्धति तथा शिष्य परम्परा ही पृथक चल गयी तथा उसका एक नवीन सम्प्रदाय धन गया। शुक्ल यजुर्वेद में. अध्याय हैं और कृष्ण यजुर्वेद १८ ही अध्याय का है। शतपथ ब्राहमण में उन १८ अध्यायों के मन्त्र पूरे नौ खण्डों में सम्पूर्ण किये गये हैं और यथा म उनपर टिप्पणी दी गयी है। इस लिए इसमें संदेह नही किये १८ हों अध्याय प्राचीन कृष्ण यजुर्वेद के उद्धरण है और संभवतः इन्ही का संकलन या संस्कार यान. वल्क्य ने नये रूप में किया शेष ७ अध्याय प्रायः याज्ञवल्क्य के पीछे तक भी संकलित होते रहे प्रतीत होते है और अन्त के ११ अध्याय जो फुटकर (परिशिष्ट वा खिल) कहे जाते हैं प्रत्यक्ष ही उत्तर कालीन है। यजुद को १०३ शाखाएँ हैं। ये शाखाएँ शैली भेद, अध्यापन भेद और देश भेद के कारण हो गयी है। इन शाखायों में बहुतप्ती जुस भी हो मुकी है। गुरुसे पढ़कर जिस शिप्यने थपने देश में जाकर जिस ढंग से अपने शिष्यों को पढ़ाया और उसमें कुछ न कुछ भेद पढ़ गया, तो वह शाखा उसी अध्यापक के नाम से प्रसिद्ध हो गयी। कुछ शाखायों में परस्पर इनना भेद है कि यजुर्वेद के दो नाम ही एड गये हैं, जैसा कि ऊपर कहा गया है, श्वेत (शुक्ल ) यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता बहुत प्रसिद्ध है। वाजसनेय ऋषि ने भिन्न-भिन्न देश के १७ शिष्यों को यजुर्वेद पढ़ाया था । न १७ हा के नाम से १७ शाखाएँ हो गयीं । शाखा-भाष्यकारों ने 1 .
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