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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१०१

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चतुर्थ सर्ग

जैसी इच्छा आपकी विदित, हुई है।
वाल्मीकाश्रम वैसा पुण्य - स्थान- है।
अत वहाँ ही विदेहजा को भेजिये |
वह है शान्त, सुरक्षित, सुकृति-निधान है ।।५८।।

किन्तु आपसे यह विशेष अनुरोध है।
सब बाते कान्ता को बतला दीजिये।
स्वयं कहेगी वह पति प्राणा आप से।
लोकाराधन में विलंब मत कीजिये ॥५९॥

सती - शिरोमणि पति - परायणा पूत - धी।
वह देवी है दिव्य - भूतियों से भरी ।।
है उदारतामयी सुचरिता सव्रता ।
जनक - सुता है परम - पुनीता सुरसरी ।।६०॥

जो हित - साधन होता हो पति - देव का ।
पिसे न जनता, जो न तिरस्कृत हों कृती ॥
तो संमृति में है वह संकट कौन सा।
जिसे नही सह सकती है ललना सती ॥६१॥

प्रियतम के अनुराग - राग मे रेंग गये।
रहती जिसके मंजुल - मुख की लालिमा ॥
सिता - समुज्वल उसकी महती कीत्ति में।
वह देखेगी कैसे लगती कालिमा ॥६२।।