पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६६
वैदेही-वनवास

अवलोकेगी अनुत्फुल्ल वह क्यों उसे ।
जिस मुख को विकसित विलोकती थी सदा ।।
देखेगी वह क्यों पति - जीवन का असुख ।
जो उत्सर्गी - कृत - जीवन थी सर्वदा ॥६॥

दोहा


सुन बाते गुरुदेव की, सुखित हुए श्रीराम ।
आज्ञा मानी ली विदा, सविनय किया प्रणाम ॥६४॥