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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१०३

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पंचम सर्ग
खुती वृशित
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ताटंक

प्रकृति-सुन्दरी विहँस रही थी चन्द्रानन था दमक रहा।
परम-दिव्य बन कान्त-अंक में तारक-चय था चमक रहा ॥
पहन श्वेत-साटिका सिता की वह लसिता दिखलाती थी।
ले ले सुधा सुधा-कर-कर से वसुधा पर बरसाती थी ॥१॥

नील-नभोमण्डल बन बन कर विविध-अलौकिक-दृश्य निलय ।
करता था उत्फुल्ल हृदय को तथा हगों को कौतुकमय ।।
नीली पीली लाल बैंगनी रंग बिरंगी उडु अवली ।
बनी दिखाती थी मनोज्ञ तम छटा-पुंज की केलि-थली ॥२॥

कर फुलझड़ी क्रिया उल्काये दिवि को दिव्य बनाती थी।
भरती थीं दिगंत मे आभा जगती-ज्योति जगाती थी।
किसे नही मोहती, देखने को कब उसे न रुचि ललकी ।
उनकी कनक-कान्ति-लीकों से लसी नीलिमा नभ-तल की ॥३॥