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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/११०

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वैदेही-वनवास

मिले बिना ऐसा अवसर कैसे मैं समय बिताऊँगी।
अहह आपको विना खिलाये मैं कैसे कुछ खाऊँगी॥
चित्त-विकल हो गये विकलता को क्यों दूर भगाऊँगी।
थाम कलेजा वार - बार कैसे मन को समझाऊँगी ।।२४।।

क्षमा कीजिये आकुलता में क्या कहते क्या कहा गया ।
नही उपस्थित कर सकती हूँ मैं कोई प्रस्ताव नया ।।
अपने दुख की जितनी बाते मैंने हो उद्विग्न कही।
आपको प्रभावित करने का था उनका उद्देश्य नही ।।२५।।

वह तो स्वाभाविक - प्रवाह था जो मुँह से बाहर आया।
आह ! कलेजा हिले कलपता कौन नहीं कव दिखलाया ।
किन्तु आप के धर्म का न जो परिपालन कर पाऊँगी।
सहधर्मिणी नाथ की तो मैं कैसे भला कहाऊँगी ॥२६॥

वही करूँगी जो कुछ करने की मुझको आज्ञा होगी।
'त्याग, करूँगी, इष्ट सिद्धि के लिये वना मन को योगी ।।
सुख - वासना स्वार्थ की चिन्ता दोनों से मुंह मोड़ेंगी।
लोकाराधन या प्रभु - आराधन निमित्त सब छोड़ेगी ।।२७।।

भवहित - पथ में क्लेशित होता जो प्रभु - पद को पाऊँगी।
तो सारे कण्टकित - मार्ग में अपना हृदय विछाऊँगी ।।
अनुरागिनी लोक - हित की वन सच्ची-शान्ति-रता हूँगी।
कर अपवर्ग - मंत्र का साधन तुच्छ स्वर्ग को मममँगी ।।२८।।