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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१२१

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षष्ठ सर्ग

कहा श्रीमती कौशल्या ने।
मुझे ज्ञात हैं सारी बाते ।
मंगलमय हो पंथ तुम्हारा।
बने दिव्य - दिन रंजित - राते ॥१८॥

पुण्य - कार्य है गुरु - निदेश है।
है यह प्रथा प्रशंसनीय - तम ॥
कभी न अविहित - कर्म करेगा।
रघुकुल - पुंगव प्रथित - नृपोत्तम ॥१९॥

आश्रम - वास - काल होता है।
कुलपति द्वारा ही अवधारित ॥
बरसों का यह काल हुए, क्यों ?
मेरे दिन होंगे अतिवाहित ॥२०॥

मंगल - मूलक महत्कार्य है।
है विभूतिमय यह शुभ - यात्रा॥
पूरित इसके अवयव में है।
प्रफुल्लता की पूरी मात्रा ॥२१॥

किन्तु नहीं रोके रुकता है।
ऑसू ऑखों मे है आता ॥
समझाती हूँ पर मेरा मन ।
मेरी बात नहीं सुन पाता ॥२२॥