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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१२२

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वैदेही-वनवास

तुम्ही राज - भवनों की श्री हो।'
तुमसे वे हैं शोभा पाते ।।
तुम्हें लाभ करके विकसित हो।
वे हैं हँसते से दिखलाते ॥२३॥

मंगल - मय हो, पर न किसीको ।
यात्रा - समाचार भाता है।
ऐसी कौन आँख हैं जिसमें।
तुरत नहीं ऑसू आता है ॥२४॥

गृह में आज यही चर्चा है।
जावेगी तो कब आवेगी।
कौन सुदिन वह होगा जिस दिन ।
कृपा - वारि आ बरसावेंगी ॥२५॥

हो अनाथ - जन की अवलम्बन ।
हृदय वड़ा कोमल पाया है।
भरी सरलता है रग रग मे।
पूत - सुरसरी सी काया है ॥२६॥

जव देखा तव हंसते देखा।
क्रोध नही तुमको आता है।
कटु वाते कव मुख से निकलीं।
वचन सुधा - रस वरसाता है ॥२७।।