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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१२३

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षष्ठ सर्ग

जैसी तुम में पुत्री वैसी।
किस जी मे ममता जगती है।
और को कलपता अवलोके ।
कौन यों कलपने लगती है ।।२८।।

विना बुलाये मेरा दुख सुन । '
कौन दौड़ती आ जाती थी।
पास बैठकर कितनी राते ।
जगकर कौन विता जाती थी ।।२९।।

मेरा क्या दासी का दुख भी।
तुम देखने नही पाती थी।
भगिनी के समान ही उसकी ।
सेवा में भी लग जाती थी॥३०॥

विदा मॉगते समय की कही।
विनयमयी तव बाते कहकर ।।
रोई वार वार कैकेयी ।
बनी सुमित्रा ऑखे निर्झर ।।३१।।

उनकी आकुलता अवलोके ।
कल्ह रात भर नीद न आई ॥
रह रह घबराती हूँ, जी मे-
आज भी उदासी है छाई ॥३२॥