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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१३३

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षष्ट सर्ग

क्यों तुम लोगों को बहनो।
मैं रो रो अधिक रुलाऊँ॥
क्यों आहें भर भर करके।
पत्थर को भी पिघलाऊँ ॥७८॥

इस जल - प्रवाह को हमको।
तुम लोगों को संयत रह ॥
सद्बुद्धि बाँध के द्वारा।
रोकना पड़ेगा सव सह ॥७९॥

दस पाँच बरस आश्रम में।
मैं रहूँ या रहूँ कुछ दिन ॥
तुम लोग क्या करोगी इन ।
आश्रम के दिवसों को गिन ॥८०॥

जैसी कि परिस्थिति होगी।
वह टलेगी नहीं टाले ॥
भोगना पड़ेगा उसको ।
क्या होगा कंधा डाले ॥८१॥

मांडवी कहो क्या तुमने।
यौवन - सुख को कर स्वाहा ॥
पति - ब्रह्मचर्य को चौदह-
सालों तक नही निबाहा ॥८२॥