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वैदेही-वनवास
इस खिन्न उर्मिला ने है।
जो सहन - शक्ति दिखलाई ॥
जिसकी सुध आते, मेरा-
दिल हिला ऑख भर आई ॥८३॥
क्या वह हम लोगों को है।
धृति - महिमा नही बताती ॥
क्या सत्प्रवृत्ति की शिक्षा ।
है सभी को न दे जाती ॥८४॥
ऑसू
पर सीच
तो उनमें
जो बूंद
आयेगे आवे ।
सुकृत - तरु - जावे ।।
पर - हित द्युति हो ।
वने दिखलाये ॥८५॥
श्रुतिकीर्ति मांडवी जैसी।
महनीय - कीर्ति तू भी हो।
मत विचल समझ मधु - मारुत ।
चल रही अगर लू भी हो ॥८६॥
उर्मिला सहा तुझ में भी।
वसुधावलम्बिनी - धृति हो ।
जिससे भव - हित हो ऐसी।
तीनों बहनों की कृति हो ।।८७।।