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वैदेही-वनवास

किसी दिवस यदि न देख पातीं।
अपार आकुल वनी दिखातीं ।।
विलोकती पंथ उत्सुका हो।
ललक ललक काल थी बिताती ॥५९।।

बहा बहा वारि जो विरह में।
बने ए नयन वारिवाह से।
बार बार बहु व्यथित हुए, जो।
हृदय विकम्पित रहे आह से ॥६०॥

विचित्रता तो भला कौन है।
स्वभाव का यह स्वभाव ही है।
कब न वारि बरसे पयोद बन ।
समुद्र की ओर सरि वही है ॥६१॥

वियोग का काल है अनिश्चित ।
व्यथा - कथा वेदनामयी है।
बहु - गुणावली रूप - माधुरी।
रोम रोम में रमी हुई है ॥६२॥

अतः रहूँगी वियोगिनी मैं।
नेत्र वारि के मीन बनेगे।
किन्तु दृष्टि रख लोक - लाभ पर ।
सुकीर्ति - मुक्तावली जनेंगे ॥६३॥