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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१८३

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दशम सर्ग

चॉदनी छिटिक छिटिक छबि से ।
छबीली बनती रहती थी।
सुधाकर - कर से वसुधा पर।
सुधा की धारा बहती थी ॥३॥

कही थे वहे दुग्ध - सोते।
कहीं पर मोती थे ढलके ।।
कही था अनुपम - रस वरसा।
भव - सुधा - प्याला के छलके ॥४॥

मंजुतम गति से हीरक - चय ।
निछावर करती जाती थी।
जगमगाते ताराओं मे।
थिरकती ज्योति दिखाती थी ॥५॥

क्षिति - छटा फूली फिरती थी।
विपुल - कुसुमावलि विकसी थी।
आज वैकुण्ठ छोड़ कमला।
विकच - कमलों में विलसी थी॥६॥

पादपों के श्यामल - दल ने।
प्रभा पारद सी पाई थी।
दिव्य हो हो नवला - लतिका ।
विभा सुरपुर से लाई थी॥७॥

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