सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४६
वैदेही-वनवास

मंद - गति से बहती नदियाँ।
मंजु - रस मिले सरसती थीं।
पा गये राका सी रजनी ।
वीचियाँ बहुत विलसती थीं ॥८॥

किसी कमनीय - मुकुर जैसा।
सरोवर विमल - सलिल वाला ॥
मोहता था स्वअंक में ले।
विधु - सहित मंजुल - उडु-साला ॥९॥

शरद - गौरव नभ - जल - थल में ।
आज मिलते थे ऑके से ।।
कीर्ति फैलाते थे हिल हिल ।
कास के फूल पताके से ॥१०॥

चतुष्पद


तपस्विनी - आश्रम समीप थी।
एक बड़ी रमणीय - बाटिका ।।
वह इस समय विपुल-विलसित थी।
मिले सिता की दिव्य साटिका ॥११॥

उसमें अनुपम फूल खिले थे।
मंद मंद जो मुसकाते थे।
बड़े भले - मावों से भर भर ।
भली रंगते दिखलाते थे॥१२।।