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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१९८

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दशम सर्ग

जान बूझ कर कभी किसी का -
अहित नही मैं करती हूँ।
पॉव सर्वदा फूंक फूंक कर ,
धरती पर मैं धरती हूँ॥६३॥

फिर क्यों लाखों कोसों पर रह ,
तुम पति पास विलसती हो।
बिना विलोके दुख का आनन ,
सर्वदैव तुम हँसती हो ॥६४।।

और किसलिये थोड़े अन्तर
पर रह मैं उकताती हूँ।
बिना नवल - नीरद-तन देखे ,
दृग से नीर बहाती हूँ॥६५॥

ऐसी कौन न्यूनता मुझमें है ,
जो विरह सताता है।
सिते । बता दो मुझे क्यों नही ,
चन्द्र - वदन दिखलाता है॥६६॥

किसी प्रिय सखी सदृश प्रिये तुम
लिपटी हो मेरे तन से।
हो जीवन - संगिनी सुखित -
करती आती हो शिशुपन से ॥६७॥