सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६६
वैदेही-वनवास

मनमाना पानी पाकर ।
था पुलकित विपुल दिखाता ॥
पी पी रट लगा पपीहा।
था अपनी प्यास बुझाता ॥२९॥

पाकर पयोद से जीवन ।
तप के तापों से छूटी।
अनुराग - मूर्ति 'बन, महि में।
विलसित थी बीर बहूटी ॥३०॥

निज - शान्ततम निकेतन में।
बैठी मिथिलेश - कुमारी ।।
हो, मुग्ध विलोक रही थीं।
नव - नील - जलद छबि न्यारी ॥३१॥

यह सोच रही थीं प्रियतम ।
तन सा ही है यह सुन्दर ।
वैसा ही है हग - रंजन ।
वैसा ही महा - मनोहर ॥३२॥

पर क्षण क्षण पर जो उसमें।
नवता है देखी जाती ।।
वह नवल - नील - नीरद में।
है मुझे नहीं मिल पाती ॥३३॥