पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६७
एकादश सर्ग

श्यामलघन में बक - माला।
उड़ उड़ है छटा दिखाती ।।
पर प्रिय • उर - विलसित -
मुक्ता - माला है अधिक लुभाती ॥३४॥

श्यामावदात को चपला।
चमका कर है चौकाती ॥
पर प्रिय - तन - ज्योति दृगों में।
- है विपुल - रस बरस जाती ॥३५॥

सर्वस्व है करुण - रस का।
है द्रवण - शीलता - सम्वल ।।
है मूल भव - सरसता का।
है जलद आई - अन्तस्तल ॥३६॥

पर निरपराध - जन पर भी।
वह . वज्रपात करता है।
ओले बरसा कर जीवन ।
बहु - जीवों का हरता है॥३७॥

है जनक प्रबल - प्लावन का।
है प्रलयंकर बन जाता।
वह नगर, ग्राम, पुर को है।
पल में निमग्न कर पाता ॥३८॥