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वैदेही-वनवास

वे इतनी तन्मयता से।
कर्तव्यों को हैं करते ॥
इस भावुकता से वे हैं।
बहु - सद्भावों से भरते ॥६९॥

इतने हढ़ हैं कि बदन पर ।
दुख - छाया नही दिखाती ॥
कातरता सम्मुख आये।
कॅप कर है कतरा जाती ॥७०॥

फिर भी तो हृदय हृदय है।
वेदना - रहित क्यों होगा।
तज हृदय - वल्लभा को क्यों।
भव - सुख जायेगा भोगा ॥७१॥

जो सज्या - भवन सदा ही।
सबको हँसता दिखलाता ॥
जिसको विलोक आनन्दित ।
आनन्द स्वयं हो जाता ||७२।।

जिसमें वहती रहती थी।
उल्लासमयी - रस - धारा॥
जो स्वरित वना करता था।
लोकोत्तर - स्वर के द्वारा ।।७३॥