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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२१६

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एकादश सर्ग

इन दिनों करुण - रस से वह ।
परिप्लावित है दिखलाता॥
अवलोक म्लानता उसकी ।
आँखों में है जल आता ||७४॥

अनुरंजन जो करते थे।
उनकी रंगत है 'बदली।
है कान्ति - विहीन दिखाती।
अनुपम - रत्नों की अवली ।।७५॥

मन मारे बैठी उसमें ।
है सुकृतिवती दिखलाती ॥
जो गीत करुण - रस - पूरित ।
प्रायः रो रो है गाती ॥७६।।

हो गये महीनों उसमे।
जाते न तात को देखा ।।
हैं, खिंची न जाने उनके ।
उर में कैसी दुख - रेखा ॥७७॥

वाते माताओं की मैं।
कहकर कैसे बतलाऊँ।
उनकी सी ममता कैसे।
मैं शब्दों मे भर पाऊँ ॥७८॥