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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२२४

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द्वादश सर्ग

जो हलचल इन दिनों राज्य में थी मची।
उन्हे देख करके जितना ही था दुखित ॥
देवि विलोके अन्त दनुज - दौरात्म्य का।
आज हो गया हूँ मैं उतना ही सुखित ॥१३॥

यदि आहव होता अनर्थ होते बड़े।
हो जाता पविपात लोक की शान्ति पर ।
वृथा परम - पीड़ित होती कितनी प्रजा।
काल का कवल वनता मधुपुर सा नगर ।।१४।।

किन्तु नृप - शिरोमणि की संयत - नीति ने।
करवाई वह क्रिया युक्ति - सत्तामयी ॥
जिससे संकट टला अकंटक महि बनी।
हुई पूत - मानवता पशुता पर जयी ॥१५॥

मन का नियमन प्रति - पालन शुचि - नीति का।
प्रजा - पुंज - अनुरंजन भव - हित - साधना ॥
कौन कर सका भू मे रघुकुल - तिलक सा।
आत्म - सुखों को त्याग लोक - आराधना ॥१६॥

देवि अन्यतम - मूर्ति उन्ही की आपको।
युगल - सुअन के रूप में मिली है अतः -
अब होगी वह महा - साधना आपकी।
बने पूततम पूत पिता के सम यतः ॥१७॥