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वैदेही-वनवास
आपके कलिततम - कर - कमलों की रची।
यह सामने लसी सुमूर्ति श्रीराम की।
जो है अनुपम, जिसकी देखे दिव्यता ।
कान्तिमती बन सकी विभा घनश्याम की ॥१८॥
इस महान - मन्दिर में जिसकी स्थापना।
हुई आपकी भावुकतामय - भक्ति से ॥
आज नितान्त अलंकृत जो है हो गई।
किसी कान्तकर की कुसुमित - अनुरक्ति से ॥१९॥
रात रात भर दिन दिन भर जिसके निकट ।
वैठ विताती आप हैं विरह के दिवस ॥
आकुलता में दे देता बहु - शान्ति है।
जिसके उज्वलतम - पुनीत - पग का परस ॥२०॥
जिसके लिये मनोहर - गजरे प्रति - दिवस ।
विरच आप होती रहती हैं बहु - सुखित ॥
जिसको अर्पण किये विना फल ग्रहण भी।
नही आपकी सुरुचि समझती है उचित ॥२१॥
राजकीय सब परिधानों से रहित कर।
शिशु - स्वरूप मे जो उसको परिणत करें।
तो वह कुश - लव मंजु - मृत्ति बन जायगी।
यह विलोक मम - नयन न क्यों मुद से भरें ॥२२॥