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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२३२

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द्वादश सर्ग

देवि वधाई मैं देती हूँ आपको।
और चाहती हूँ यह सच्चे - हृदय से ॥
चिरजीवी हों दिव्य - कोख के लाल ये।
और यशस्वी वने पिता - सम - समय से ॥५३॥

इतने ही में वर - वीणा बजने लगी।
मधुर - कण्ठ से मधुमय - देवालय बना ॥
प्रेम - उत्स होगया सरस - आलाप से।
जनक - नन्दिनी ऑखों से आंसू छना ॥५४॥

पद


बधाई देने आई हूँ।


गोद आपकी भरी विलोके फूली नहीं समाई हूँ।
लालों का मुख चूम बलाये लेने को ललचाई हूँ।
ललक - भरे - लोचन से देखे बहु - पुलकित हो पाई हूँ॥
जिनका कोमल - मुख अवलोके मुदिता बनी सवाई हूँ।
जुग जुग जिये लाल वे जिनकी ललके देख ललाई हूँ॥
विपुल - उमंग - भरे - भावों के चुने - फूल में लाई हूँ।
चाह यही है उन्हें चढ़ाऊँ जिनपर बहुत लुभाई हूँ ॥
रीझ रीझ कर विशद - गुणों पर मैं जिसकी कहलाई हूँ।
उसे वधाई दिये कुसुमिता - लता - सदृश लहराई हूँ ॥१॥५५॥