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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२३४

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द्वादश सर्ग
तिलोकी

जब तपस्विनी - सत्यवती गाना , रुका।
जनकसुता ने सविनय मुनिवर से कहा ।।
देव ! आपकी आज्ञा शिरसा - धार्य है।
सदुपदेश कब नही लोक - हित - कर रहा ॥५७॥

जितनी मैं उपकृता हुई हूँ आपसे।
वैसे व्यापक शब्द न मेरे पास हैं।
जिनके द्वारा धन्यवाद दूं आपको।
होती कब गुरु - जन को इसकी प्यास है ॥५८॥

हॉ, यह आशीर्वाद कृपा कर दीजिये।
मेरे चित को चञ्चल - मति छू ले नहीं ।
विविध व्यथाये सहूँ किन्तु पति - वांछिता।
लोकाराधन - पूत - नीति भूले नही ॥५९।।

तपस्विनी - आश्रम - अधीश्वरी आपकी।
जैसी अति - प्रिय - संज्ञा है मृदुभापिणी ।।
हुआ आपका भाषण वैसा ही मृदुल ।
कहाँ मिलेगी ऐसी हित - अभिलाषिणी ॥६०॥

अति उदार हृदया है, हैं भवहित - रता।
आप धर्म - भावो की है अधिकारिणी ।।
है मेरी सुविधा - विधायिनी शान्तिदा।
मलिन - मनों मे हैं शुचिता - संचारिणी ॥६१॥

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