पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२३६

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त्रयोदश सर्ग
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जतिवृत्तः = सूराचा
तिलोकी

तपस्विनी - आश्रम के लिये विदेहज़ा।
पुण्यमयी - पावन - प्रवृत्ति की पूर्ति थी।
तपस्विनी - गण की आदरमय - दृष्टि में ।
मानवता - ममता की महती - मूर्ति थी ॥१॥

ब्रह्मचर्य - रत वाल्मीकाश्रम - क्षात्र - गण।
तपोभूमि - तापस, विद्यालय - विवुध - जन ।।
मूर्तिमती - देवी थे उनको मानते ।
भक्तिभाव - सुमनाञ्जलि द्वारा कर यजन ॥२॥

अधिक - शिथिलता गर्भभार - जनिता रही।
फिर भी परहित - रता सर्वदा वे मिली ॥
कर सेवा आश्रम - तपस्विनी - वृन्द की।
वे कब नही प्रभात - कमलिनी सी खिलीं ॥३॥