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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२७४

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चतुर्दश सर्ग

उसमें है सात्विक - प्रवृत्ति - सुमनावली।
उसमें सुरतरु सा विलसित भव - क्षेम है।
सकल-लोक अभिनन्दन-सुख-सौरभ-भरित ।
नन्दन - वन सा अनुपम दम्पति - प्रेम है ।। ८९ ।

है सुन्दर - साधना कामना - पूर्ति की।
भरी हुई है उसमें शुचि - हितकारिता ॥
है विधायिनी विधि - संगत वर - भूति की।
कल्पलता सी दम्पति की सहकारिता ।। ९० ॥

है सद्भाव समूह धरातल के लिये ।
सर्व - काल सेचन - रत पावस का जलद ।।
फूला - फला मनोज्ञ कामप्रद कान्त - तन ।
है दम्पति का प्रेम कल्पतरु सा फलद ॥९१॥

है विभिन्नता की हरती उद्भावना।
रहने देती नही अकान्त - अनेकता ॥
है पयस्विनी - सदृश प्रकृत - प्रतिपालिका ।
कामधेनु - कामद है दम्पति - एकता ॥९२॥

पूत - कलेवर दिव्य - देवतों के सदृश ।
भूरि - भव्य - भावों का अनुपम - ओक है।
वर - विवेक से सुरगुरु जिसमे हैं लसे।
दम्पति - प्रेम परम - पुनीत सुरलोक है।९३॥
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