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वैदेही-वनवास

मृदुल - उपादानों से वनिता है रचित ।
हैं उसके सब अंग बड़े - कोमल बने।
इसीलिये है कोमल उसका हृदय भी।
उसके कोमल - वचन सुधा में हैं सने ॥९४॥

पुरुप अकोमल - उपादान से है बना।
इसीलिये है उसे मिली दृढ़ - चित्तता।
बड़े - पुष्ट होते हैं उसके अंग भी।
उसमें बल की भी होती है अधिकता ।।९५॥

जैसी ही जननी की कोमल - हृदयता।
है अभिलषिता है जन - जीवनदायिनी ॥
वैसी ही पाता की बलवत्ता तथा।
बढ़ता है वांछित, है विभव - विधायिनी ॥९६।।

है दाम्पत्य - विधान इसी विघि में बँधा।
दोनों का सहयोग परस्पर है ग्रथित ।।
जो पौरुष का भाजन है कोई पुरुष ।
तो कुल - वाला मूर्ति - शान्ति की है कथित ॥ ९७।।

अपर - अंग करता है पीड़ित - अंग - हित ।
जो यह मति रह सकी नही चिर - संगिनी ।
कहाँ पुरुप मे तो पौरुप पाया गया।
कहाँ बन सकी वनिता तो अद्धांगिनी ।। ९८॥