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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२७६

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चतुर्दश सर्ग

किसी समय अवलोक पुरुप की परुषता। '
कोमलता से काम न जो लेवे प्रिया ॥
कहाँ बनी तो स्वाभाविकता • सहचरी।
काम मृदुल - उर ने न मृदुलता से लिया ॥९९ ॥

रस - विहीन जिसको कहकर रसना बने।
ऐसी नीरस बातें क्यों जाये कही।
कान्त के लिये यदि वे कड़वे बन गये।
कान्त - वचन में तो कान्तता कहाँ रही ॥१००।।

कोमल से भी कोमल कलित - कुसुम बने ।
उसको किसी विशिख से वन वे क्यों लगे।
रहे वचन जो सदा सुधारस में सने ॥१०१॥

अकमनीय कैसे कमनीय प्रवृत्ति हो।
बडी चूक है उसे नहीं जो रोकती ।।
कोई कोमल - हृदया प्रियतम को कभी।
कड़ी ऑख से कैसे है अवलोकती ॥१०२।।

जो न कंठ हो सकी पुनीत - गुणावली।
क्यो पाती न प्रवृत्ति कलहप्रियता पता ॥
जो कटूक्ति के लिये हुई उत्कण्ठ तो।
क्यों कलंकिता बनेगी न कल - कंठता ॥१०३।।