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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२८२

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चतुर्दश सर्ग

कलह कपट - व्यवहार कु - कौशल करों से।
बहु- सदनों के सुख जाते थे छिन वहाँ ।
होता रहता था साधारण बात से।
पति - पत्नी का परित्याग प्रति - दिन वहाँ ॥१२९॥

अहंभाव दुर्भाव तथा दुर्वासना।
उसे तोड़ देती थी पतित - प्रवंचना ।।
ऐचा तानी हुई कि वह टूटा नहीं ।
कचा धागा था विवाह - बंधन बना ॥१३०॥

उस अभागिनी की अशान्ति को क्या कहें।
जिसे शान्ति पति - परिवर्तन ने भी न दी।
होती है वह विविध - यंत्रणाओं भरी।
इसीलिये तृष्णा है वैतरणी नदी ॥१३१॥

नरक ओर जाती थी पर वे सोचतीं।
उन्हें लग गया स्वर्ग - लोक का है पता ॥
दुराचार ही सदाचार था बन गया ।
स्वतंत्रता थी मिली तजे परतंत्रता ॥१३२॥

था वनाव - शृंगार उन्हें भाता बहुत ।
तन को सज उनका मन था रौरव बना ॥
उच्छंखलता की थी वे अति -प्रेमिका ।
उसी में चरम - सुख की थी प्रिय - कल्पना ।।१३३।।

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