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वैदेही-वनवास

हैं उनके पंचांग काम देते बहुत ।
छबि दिखला वे किसे मुग्ध करते नहीं॥
लेते सिर पर भार नही जो वे उभर ।
तो भूतल के विपुल उदर भरते नहीं ॥३९॥

है रसालता किसको मिली रसाल सी।
कौन गुलाब - प्रसूनों जैसा कब खिला ॥
सबके हित के लिये झकोरे सहन कर।
कौन सब दिनों खड़ा एक पद से मिला ॥४०॥

तरु वर्षा - शीतातप को सहकर स्वयं ।
शरणागत को करते आश्रय दान है।
प्रातः कलरव से होता यह ज्ञात है।
खगकुल करते उनका गौरव - गान हैं ॥४१॥

पाता है उपहार 'प्रहारक, फलों का -
किससे, किसका मर्मस्पर्शी मौन है॥
द्रुम समान अवलम्बन विहग - समूह का।
कर्तनकारी का हित - कर्ता कौन है॥४२॥

तरु जड़ हैं इन सारे कामों को कभी।
जान बूझ कर वे कर सकते हैं नही ।।
पर क्या इनमे छिपे निगूढ - रहस्य है।
कैसे जा सकती हैं ए. वाते कही ।४३।।