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पंचदश सर्ग

कला - कान्त कितनी लीलाये प्रकृति की।
हैं ललामतम किन्तु हैं जटिलतामयी ।।
कब उससे मति चकिता होती है नही।
कभी नही अनुभूति हुई उनपर जयी ॥४४||

कहाँ किस समय क्या होता है किसलिये।
कौन इन रहस्यों का मर्म बता सका।
भव - गुत्थी को खोल सका कब युक्ति - नख ।
चल इस पथ पर कब न विचार - पथिक थका ॥४५॥

प्रकृति - भेद वह ताला है जिसकी कहीं।
अब तक कुंजी नही किसी को भी मिली।
वह वह कीली है विभुता - भू में गड़ी।
जो न हिलाये ज्ञान - शक्ति के भी हिली ॥४६॥

जो हो, पर पुत्रो भव - दृश्यों को सदा।
अवलोकन तुम लोग करो वर - दृष्टि से ॥
और करो सेचन वसुधा - हित - विटप का।
अपनी - सत्कृति की अति - सरसा - वृष्टि से ॥४७॥

जो सुर - सरिता हैं नेत्रों के सामने ।
जिनकी तुंग - तरंगें हैं ज्योतिर्मयी ।।
कीर्ति - पताका वे हैं रविकुल - कलस की।
हुई लोकहित - ललकों पर वे हैं जयी ॥४८॥

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