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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२९९

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वैदेही-वनवास

तुल लोगों के पूर्व - पुरुष थे, बहु - विदित -
भूप भगीरथ सत्य - पराक्रम धर्म - रत ।।
उन्हीं के तपोबल से वह शुचि - जल मिला।
जिसके सम्मुखहुई चित्त - शुचिता - विनत ॥४९॥

उच्च - हिमाचल के अञ्चल की कठिनता।
अल्प भी नहीं उन्हें बना चंचल सकी ।।
दुर्गमता गिरि से निधि तक के पंथ की।
सोचे उनकी अथक - प्रवृत्ति नही थकी ॥५०॥

उनका शिव - संकल्प सिद्धि - साधन बना।
उनके प्रबल - प्रयत्नों से बाधा टली ।।
पथ के प्रस्तर सुविधा के विस्तर बने ।
सलिल - प्रगति के ढंगों में पटुता ढली ॥५१॥

कुलहित की कामना लोक - हित लगन से।
जब उर सर में भक्तिभाव - सरसिज खिला ॥
शिव - सिर - लसिता - सरिता हस्तगता हुई।
ब्रह्म - कमण्डल - जल महि - मण्डल को मिला ॥५२॥

सुर - सरिता को पाकर भारत की धरा ।
धन्य हो गई और स्वर्ण - प्रसवा वनी ॥
हुई शस्य - श्यामला सुधा से सिञ्चिता।
उसे मिले धर्मज्ञ धनद जैसे धनी ॥५३॥