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पंचदश सर्ग

वह काशी जो है, प्रकाश से पूरिता ।
जहाँ भारती की होती है आरती ॥
जो सुर - सरिता पूत - सलिल पाती नही ।
पतित - प्राणियों को तो कैसे तारती ॥५४॥

सुन्दर - सुन्दर - भूति भरे नाना - नगर ।
किसके अति - कमनीय - कूल पर हैं लसे ।।
तीर्थराज को तीर्थराजता मिल गई।
किस तटिनी के पावनतम - तट पर बसे ।।५५।।

हृदय - शुद्धता की है परम - सहायिका ।
सुर - सरिता स्वच्छता - सरसता. मूल है।
उसका जीवन, जीवन है वहु जीव का।
उसका कूल तपादिक के अनुकूल है।॥५६॥

साधक की साधना सिद्धि - उन्मुख हुई।
खुले ज्ञान के नयन अज्ञता से ढके ।।
किसके जल - सेवन से संयम सहित रह ।
योग योग्यता बहु - योगी - जन पा सके ॥५७॥

जनक - प्रकृति - प्रतिकूल तरलता - ग्रहण कर।
भीति - रहित हो तप - ऋतु के आतंक से ।
हरती है तपती धरती के ताप को।
किसकी धारा निकल धराधर - अङ्क से ॥५८।।