पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/३०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२६०
वैदेही-वनवास

किससे सिँचते लाखों बीघे खेत हैं।
कौन करोड़ों मन उपजाती अन्न है।
कौन हरित रखती है अगणित - द्रुमों को।
सदा सरस रह करती कौन प्रसन्न है ।।५९।।

कौन दूर करती प्यासों की प्यास है।
कौन खिलाती बहु - भूखों को अन्न है।
कौन वसन - हीनों को देती वसन है।
निर्धन - जन को करती धन - सम्पन्न है॥६०||

है उपकार - परायणा सुकृति - पूरिता।
इसीलिये है ब्रह्म - कमण्डल - वासिनी ।।
है कल्याण - स्वरूपा भव - हित - कारिणी।
इसीलिये वह है शिव - शीश - विलासिनी ॥६१॥

है सित - वसना सरसा परमा - सुन्दरी ।
देवी बनती है उससे मिल मानवी ॥
__उसे बनाती है रवि - कान्ति सुहासिनी ।
है जीवन - दायिनी लोक की जाह्नवी ॥६२॥

अवगाहन कर उसके निर्मल - सलिल में ।
मल - विहीन बन जाते हैं यदि मलिन - मति ।
तो विचित्र क्या है जो निपतन पथ रुके ।
सुर - सरिता से पा जाते हैं पतित गति ।।६३।।