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पंचदश सर्ग
महज्जनों के पद् - जल में है पूतता।
होती है उसमें जन - हित गरिमा भरी ॥
अतिशयता है उसमे ऐसी भूति की।
इसीलिये है हरिपादोदक सुरसरी ॥६४॥
गौरी गंगा दोनों हैं गिरि - नन्दिनी ।
रमा समा गंगा भी हैं वैभव - भरी ॥
गिरा समाना वे भी गौरव - मूर्ति हैं।
विवुध न कहते कैसे उनको सुरसरी ॥६५
पुत्रो रवि का वंश समुज्वल - वंश है।
तुम लोगों के पूर्व - पुरुष महनीय हैं।
सुर - सरिता - प्रवाह उद्भावन के सदृश ।
उनके कितने कृत्य ही अतुलनीय हैं ॥६६।।
तुम लोगों के पितृदेव भी वंश के।
दिव्य पुरुप है, है महत्व उनमे भरा ॥
मानवता की मर्यादा की मूर्ति हैं।
उन्हें लाभ कर धन्य हो गई है धरा ॥६७॥
सुन वनवास चतुर्दश - वत्सर का हुए -
अल्प भी न उद्विग्न न म्लान बदन बना ॥
तृण समान साम्राज्य को तजा सुखित हो।
हुए कहाँ ऐसे महनीय - महा - मना ।।६८॥