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वैदेही-वनवास
वर्म धुरधरता है ध्रुव जैसी अटल ।
मदाचार मत्यव्रत के वे सेतु है॥ ।
लोकोत्तर है उनकी लोकाराधना ।
उड़ते उनके कलिन - कीर्ति के केतु हैं ।।६९॥
राजभवन था मजित सुरपुर - मदन सा।
कनक - रचित बहु - मणि - मण्डित - पयंक था ।।
रही सेविका सुरबाला सी सुन्दरी।
गृह - नभ का सुख राका - निशा - मयंक था ।।७०।।
इनको तजकर रहना पड़ा कुटीर मे।
निर्जन - वन मे सोना पड़ा तृणादि पर ।
फिर भी विकच वना रहता मुख - कंज था।
किसका चित्त दिखाया इतना उच्चतर ।।७१।।
होता है उत्ताल - तरंगाकुल - जलधि ।
है अवाव्यता भी उसकी अविदित नहीं ।।
किन्तु बनाया सेतु उन्होंने उसी पर।
किसी काल में हुआ नही ऐसा कही ॥७२।।
तुम लोगों के पिता लोक - सर्वस्व हैं।
दिव्य - भूतियों के अद्भुत - आगार है॥
हैं रविकुल के रवि - सम वे हैं दिव्यतम |
वे वसुधातल के अनुपम - शृंगार है ॥७३॥