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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/३२०

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सप्तदश सर्ग

कभी किलकिलाते थे दॉत निकाल कर ।
कभी हिलाकर डाले फल थे खा रहे ।
कही कूद ऑखे मटका भौहें नचा।
कपि - समूह थे. निज - कपिता दिखला रहे ॥९॥

खग - कलरव या पशु - विशेप के नाद से।
कभी कभी वह होती रही निनादिता॥
सन्नाटा वन - अवनी मे सर्वत्र था।
पूरी - निर्जनता थी उसमें व्यापिता ॥१०॥

इधर उधर खोजते हुए शंबूक को।
पंचवटी के पंच - वटों के सामने ॥
जब पहुँचे उस समय अतीत - स्मृति हुए।
लिया कलेजा थाम लोक - अभिराम ने,॥११॥

पंचवटी प्राचीन - चित्र अंकित हुए।
हृदय - पटल पर, आकुलता चित्रित हुई।
मर्म - वेदना लगी मर्म को वेधने।
चुभने लगी कलेजे में मानों सुई ॥१२॥

हरे - भरे तरु हरा-भरा करते न थे।
उनमे भरी हुई दिखलाती थी व्यथा ।।
खग - कलरव में कलरवता मिलती न थी।
वोल बोल वे कहते थे दुख की कथा ॥१३॥