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वैदेही-वनवास

लतिकायें थी बड़ी - बलायें बन गई।
हिल हिल कर वे दिल को देती थी हिला ॥
कलिकायें निज कला दिखा सकती न थी।
जी की कली नहीं सकती थी वे खिला ॥१४॥

शूल के जनक से वे होते ज्ञात थे।
फूल देखकर चित्त भूल पाता न था ।
देख तितिलियों को उठते थे तिलमिला ।
भौरों का गुञ्जार उन्हें माता न था ।।१५।।

जिस प्रस्रवण - अचल - लीलाओं के लिये ।
लालायिता सदा रहती थी लालसा ॥
वह उस भग्न - हृदय सा होता ज्ञात था।
जिसे पड़ा हो सर्व - सुखों का काल सा ॥१६॥

कल निनादिता - केलिरता - गोदावरी ।
बनती रहती थी जो मुग्धकरी - बड़ी ॥
दिखलाती थी उस वियोग - विधुरा समा।
बहा बहा ऑसू जो भू पर हो पड़ी ॥१७॥

फिर वह यह सोचने लगे तरुओं - तले ।
प्रिया - उपस्थिति के कारण जो सुख मिला ॥
मेरे अन्तस्तल सरवर में उन दिनों।
जैसा. वर - विनोद का वारिज था खिला ॥१८॥