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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/३२२

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२८१प
सप्तदश सर्ग

रत्न - विमण्डित राजभवन के मध्य भी।
उनकी अनुपस्थिति में वह सुख है कहाँ।
न तो वहाँ वैसा आनन्द - विकास है।
न तो अलौकिक - रस ही वहता है वहाँ ।।१९।।

ए पाँचों वट भी कम सुन्दर हैं नहीं।
अति - उत्तम इनके भी दल, फल फूल हैं।
छाया भी है सुखदा किन्तु प्रिया - विना ।
वे मेरे अन्तस्तल के प्रतिकूल हैं ॥२०॥

वारह बरस व्यतीत हुए उनके यही ।
किन्तु कभी आकुलता होती थी नही ।
कभी म्लानता मुखड़े पर आती न थी।
जब अवलोका विकसित - बदना वे रही ॥२१॥

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और सहारा क्या था फल, दल के सिवा ।
था जंगल का वास वस्तु होती गिनी ।।
कभी कमी का नाम नही मुँह ने लिया।
बात असुविधा की कब कानों ने सुनी ॥२२॥

राई - भर भी है न बुराई दीखती।
रग - रग में है भूरि - भलाई ही भरी ॥
उदारता है उनकी जोवन - संगिनी ।
पर दुख - कातरता है प्यारी - सहचरी ॥२३॥