पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/३२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२८२
वैदेही-वनवास

बड़े - बड़े - दुख के अवसर आये तदपि ।
कभी नही दिखलाई वे मुझको दुखी ॥
मेरा मुख - अवलोके दिन था बीतता।।
मेरे सुख से ही वे रहती थी सुखी ॥२४॥

रूखी सूखी बात कभी कहती न थीं।
तरलतम - हृदय में थी। ऐसी तरलता ॥
असरल - पथ भी बन जाते थे सरल - तम ।
सरल - चित्त की अवलोकन कर सरलता ॥२५॥

जब सौमित्र - बदन कुम्हलाया देखतीं।
मधुर - मधुर बाते कह समझाती उन्हें ॥
जो कुटीर में होता वे लेकर उसे। '
पास बैठकर प्यार से खिलाती उन्हें ॥२६॥

कभी उर्मिला के वियोग की सुधि हुए।
ऑसू उनके हग का रुकता ही न था ।
कभी बनाती रहती थी व्याकुल उन्हें ।
मम - माता की विविध - व्यथाओं की कथा ॥२७॥

ऐसी परम - सदय - हृदया भव - हित रता।
सत्य - प्रेमिका गौरव - मूर्ति गरीयसी ।
बहु- बत्सर से है वियोग - विधुरा बनी।
विधि की विधि ही है भव - मध्य - बलीयसी ॥२८॥