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सप्तदश सर्ग

जिसके भ्रू ने कभी न पाई बंकता।
जिसके हग मे मिली न रिस की लालिमा ।।
जिसके मधुर - वचन न कभी अमधुर बने ।
जिसकी कृति - सितता में लगी न कालिमा॥२९॥

उचित उसे कह वन सच्ची - सहधर्मिणी।
जिसने वन का वास मुदित - मन से लिया ।
शिरोधार्य कह अति - तत्परता के सहित ।
जिसने मेरी आज्ञा का पालन किया ॥३०॥

मेरा मुख जिसके सुख का आधार था।
मेरी ही छाया जो जाती है कही ।।
जिसका मैं इस भूतल में सर्वस्व था।
जो मुझ पर उत्सर्गी - कृत - जीवन रही ॥३१॥

यदि वह मेरे द्वारा वहु - व्यथिता बनी।
विरह - उद्धि - उत्ताल - तरंगों में बही ।।
तो क्यों होगी नहीं मर्म - पीड़ा मुझे।
तो क्यों होगा मेरा उर शतधा नहीं ॥३२॥

एक दो नहीं द्वादश - वत्सर हो गये।
किसने इतनी भव - तप की ऑचे सही।
कब ऐसा व्यवहार कही होगा हुआ।
कभी घटी होगी ऐसी घटना नहीं ॥३३॥