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वैदेही-वनवास
धीर - धुरंधर ने फिर धीरज धर सँभल ।
अपने अति - आकुल होते चित से कहा ॥
स्वाभाविकता स्वाभाविकता है अतः ।
उसके प्रबल - वेग को कब किसने सहा ॥३४॥
किन्तु अधिक होना अधीर वांछित नही।
जब कि लोक - हित हैं लोचन के सामने ॥
प्रिया को बनाया है वर भव - दृष्टि में।
लोकहित - परायण उनके गुण ग्राम ने ॥३५॥
आज राज्य में जैसी सच्ची - शान्ति है।
जैसी सुखिता पुलक - पूरिता है प्रजा ॥
जिस प्रकार ग्रामों, नगरों, जनपदों में।
कलित - कीर्ति की है उड़ रही ललित ध्वजा ॥३६॥
वह अपूर्व है, है वुध - वृन्द - प्रशंसिता।
है जनता - अनुरक्ति - भक्ति उसमें भरी ॥
पुण्य - कीर्तन के पावन - पाथोधि में।
डूब चुकी है जन - श्रुति की जर्जर तरी ॥३७॥
बात लोक - अपवाद की किसी ने कभी।
जो कह दी थी भ्रम प्रमादवश में पड़े ॥
उसकी याद हुए भी अवसर पर किसी।
अब हो जाते हैं उसके रोये खड़े ॥३८॥