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सप्तदश सर्ग
विना रक्त का पात प्रजा - पीड़न किये।
विना कटे कितने ही लोगों का गला ॥
साम - नीति अवलम्बन कर संयत वने ।
लोकाराधन - वल से टली प्रबल - बला ॥३९॥
इसका श्रेय अधिकतर है महि - सुता को।
उन्ही की सुकृति - वल से है वाधा टली ॥
उन्हीके अलौकिक त्यागों के अंक में।
लोक - हितकरी - शान्ति - वालिका है पली ॥४०॥
यदि प्रसन्न - चित से मेरी बातें समझ ।
वे कुलपति के आश्रम में जाती नही ।
वहाँ त्याग की मूर्ति दया की पूर्ति बन ।
जो निज दिव्य - गुणों को दिखलाती नही ॥४१॥
जो घबराती विरह - व्यथाये सोचकर ।
मम - उत्तरदायित्व समझ पाती नही॥
जो सुख - वांछा अन्तस्तल मे व्यापती ।
जो कर्त्तव्य - परायणता भाती नहीं ॥४२॥
तो अनर्थ होता मिट जाते वहु - सदन ।
उनका सुख बन जाता बहुतों का असुख ॥
उनका हित कर देता कितनों का अहित ।
उनका मुख हो जाता भवहित से विमुख ॥४३॥