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अष्टादश सर्ग

धीरे धीरे थे समस्त - रथ चल रहे।
विविध - वाद्य - वादन - रत वादक - वृन्द था ।
चारों ओर विपुल - जनता का यूथ था।
जो प्रभात का बना हुआ अरविन्द था ॥२९॥

बरस रही थी लगातार सुमनावली ।
जय - जय - ध्वनि से दिशा ध्वनित थी हो रही ।।
उमड़ा हुआ प्रमोद - पयोधि - प्रवाह था।
'प्रकृति, उरों में 'सुकृति, बीज थी वो रही ॥३०॥

कुश - लव का श्यामावदात सुन्दर - बदन ।
रघुकुल - पुंगव सी उनकी. - कमनीयता ॥
मातृ - भक्ति - रुचि वेश - वसन की विशदता ।
परम - सरलता मनोभाव - रमणीयता ।।३१।।

मधुर - हॅसी मोहिनी - मूर्ति मृदुतामयी।
कान्ति - इन्दु सी दिन - मणि सी तेजस्विता ।।
अवलोके द्विगुणित होती अनुरक्ति थी।
वनती थी जनता विशेष - उत्फुल्लिता ॥३२॥

जव मुनि - पुंगव रथ समेत महि - नन्दिनी ।
रथ पहुँचा सज्जित - मंडप के सामने ॥
तव सिंहासन से उठ सादर यह कहा।
मण्डप के सब महज्जनों से राम ने ॥३३॥