पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/३४३

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वैदेही-वनवास

आप लोग कर कृपा यहीं बैठे रहें।
जाता हूँ मुनिवर को लाऊँगा यहीं ।
साथ लिये मिथिलाधिप की नन्दिनी को।
यथा शीघ्र मैं फिर आ जाऊँगा यही ॥३४॥

रथ पहुंचा ही था कि कहा सौमित्र ने।
आप सामने देखें प्रभु हैं आ रहे।
श्रवण - रसायन के समान यह कथन सुन ।
स्रोत - सुधा के सिय अन्तस्तल में बहे ॥३५॥

उसी ओर अति - आकुल - ऑखे लग गई।
लगीं निछावर करने वे मुक्तावली ॥
बहुत समय से कुम्हलाई आशा - लता।
कल्पबेलि सी कामद बन फूली फली ॥३६।।

रोम रोम अनुपम - रस से सिञ्चित हुआ।
पली अलौकिकता - कर से पुलकावली ।।
तुरत खिली खिलने में देर हुई नहीं।
बिना खिले खिलती है जो जी की कली ॥३७॥

घन - तन देखे वह वासना सरस बनी।
जो वियोग - तप - ऋतु - आतप से थी जली ॥
विधु - मुख देखे तुरत जगमगा वह उठी।
तम - भरिता थी जो दुश्चिन्ता की गली ॥३८॥