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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/३४४

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अष्टादश सर्ग

जव रथ से थी उतर रही जनकांगजा ।
उसी समय मुनिवर की करके वन्दना ।
पहुँचे रघुकुल - तिलक वल्लभा के निकट ।
लोकोत्तर था पति - पत्नी का सामना ॥३९॥

ज्योंही पति प्राणा ने पति - पद - पद्म का।
स्पर्श किया निर्जीव - मूर्ति सी बन गई।
और हुए अतिरेक चित्त - उल्लास का।
दिव्य - ज्योति में परिणत वे पल में हुई ॥४०॥

लगे वृष्टि करने सुमनावलि की त्रिदश ।
तुरत दुंदुभी - नभतल मे बजने लगी।
दिव्य - दृष्टि ने देखा, है दिव - गामिनी ।
वह लोकोत्तर - ज्योति जो धरा में जगी ॥४१॥

वह थी पातिव्रत - विमान पर विलसती।
सुकृति, सत्यता, सात्विकता की मूर्तियाँ॥
चमर डुलाती थी करती जयनाद थी।
सुर - बालाये करती थी कृति - पूर्तियाँ ॥४२॥

क्या महर्पि क्या विबुध-वृन्द क्या नृपति-गण ।
क्या साधारण जनता क्या सब जानपद ॥
सभी प्रभावित दिव्य - ज्योति से हो गये।
मान लोक के लिये उसे आलोक प्रद ॥४३॥
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